संपादकीय

मेरी कलम से…

सम्पादकीय मई 2016

raqmर्तमान समय में पूरा देश सूखे और भीषण गर्मी की गिरफ्त में है। वैसे तो कई प्रकार की आपदाओं से हमें दो-चार होना पड़ता है पर सूखे की आपदा, ऐसी आपदा है जिसको हम काफी हद तक नियंत्रित कर सकते हैं लेकिन हम ऐसा कर नहीं पा रहे हैं। न हमारे देश की सरकारें कोई ऐसी योजनाएं बनाकर उनको मूर्त रूप दे पायी हैं जिससे पानी के प्रबंधन की सुदृढ़ व्यवस्था की जा सके और न ही हमने कोई ऐसी सार्वजनिक व्यवस्था बनायी है जिससे हम समाज को अपना कोई योगदान दे सकें। वर्तमान समय में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश जैसे प्रदेशों का बहुत बड़ा भूभाग पानी की कमी से जूझ रहा है। कुछ हिस्सों में तो पीने का पानी भी दुर्लभ हो गया है। नहरें, तालाब, कुएं, बावड़ी सब सूखे पड़े हैं और हर जगह स्थानीय सरकारें उस पर काम करने का और स्थिति से निपटने का दावा तो कर रही हैं लेकिन जमीनी स्तर पर उसका लाभ होता दिख नहीं रहा है।
हमारी व्यवस्था का आलम यह है कि कभी हम सूखे की मार झेलते हैं और जब बारिश होती है तो हम मैदानी इलाकों में बाढ़ को लेकर त्राहिमाम करते नजर आते हैं किन्तु देश की आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम ऐसा तंत्र नहीं खड़ा कर सके जो मैदानी इलाकों में सूखे और बाढ़ दोनों को नियंत्रित कर सके। निश्चित रूप से इसकी असफलता की जिम्मेदार सरकार ही है लेकिन काफी हद तक हमारी सामाजिक व्यवस्था भी इसकी जिम्मेदार है। हमने अपनी पुरानी सभ्यता और संस्कारों से कुछ सीखने की बजाय उन परम्पराओं को महत्वहीन समझ कर छोड़ दिया। पूर्व में हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी जो अपने लिए तो संसाधन जुटाने के साथ-साथ समाज में दूसरे लोगों के लिए भी व्यवस्था करना अपना कर्तव्य समझती थी। गांव में तालाब-बावड़ी और कुएं आपसी सहयोग से श्रमदान करके अपने गांव, क्षेत्र आदि में पानी जैसी मूलभूत चीजों की व्यवस्था स्वयं ही कर लिया करती थी लेकिन धीरे-धीरे हम अपने सामाजिक दायित्वों को भूलते हुए सरकारों पर आश्रित हो गये। और उसका परिणाम यह हुआ कि सरकारी योजनाएं कहीं धन के अभाव में, कहीं धन के कुप्रबंधन के साथ काम करती हुई अपने लक्ष्य का न्यूनतम ही दे पा रही हैं और उसमें सामाजिक योगदान लगभग नगण्य हो चुका है। होना तो यह चाहिए था कि सरकार और समाज दोनों को अपनी बराबर भागीदारी के साथ काम करते, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है किन्तु इन सबके बीच आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो समाज के प्रति अपना दायित्व समझते हैं और ईमानदारी से उसका निर्वहन भी कर रहे हैं पर वे ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिनको हम पिछड़ा, अशिक्षित और गरीब मानते हैं। हमारे देश का जो शिक्षित और सभ्य कहलाने वाला वर्ग है, वह सामाजिक व्यवस्था में अपने योगदान को बातों और मशविरों एवं सरकारी व्यवस्था की आलोचना तक सीमित हो गया है। जिससे समाज में एक विसंगति उत्पन्न हो गयी है और उसके परिणाम स्वरूप हमने बहुत सारी समस्याएं स्वयं ही खड़ी कर ली हैं। अगर हम इन समस्याओं को चिन्हित करके उसमें सरकार की और समाज की अपनी-अपनी भूमिका तय कर लें और ईमानदारी से उसका क्रियान्वयन हो तो कोई भी ऐसी समस्या नहीं जिसको हम समाप्त या कम न कर सकें। जहां एक ओर पानी के अभाव में पूरे देश में सूखा प्रभावित लोग सिर पर

हाथ रखकर पश्चाताप कर रहे हैं और भगवान से कृपा की आस लगाये बैठे हैं। वहीं पानी की समस्या के समाधान और समाज में अपने योगदान के संदर्भ में सबसे मौजू और अनुकरणीय उदाहरण मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के आदिवासियों द्वारा किये गये श्रमदान (हलमा) है जिसकी विस्तृत रिपोर्ट हम प्रकाशित भी कर रहे हैं, जिसमें हजारों आदिवासियों ने अपने लिए नहीं, पूरे समाज के लिए झाबुआ जिले की एक पहाड़ी को बरसात आने से पहले अपने श्रमदान द्वारा ऐसा व्यवस्थित कर दिया कि होने वाली बरसात के एक-एक बूंद पानी का संचयन किया जा सके और इस कार्य पर एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया। अब ये बनवासी और आदिवासी समाज जिसको पता है कि उसके द्वारा दिये गये श्रमदान से उसका नहीं, दूसरों को लाभ मिलेगा, इसको जानते हुए भी खुशी-खुशी अपना श्रमदान देना और इसे पुण्य का काम समझना समाज और देश के लिए अनुकरणीय है। इनके जज्बे और इनके कर्तव्यों से ग्रामीण एवं शहरी, सभ्य और शिक्षित, धनिक एवं निर्धन सभी वर्गों को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिए और ऐसे ही उदाहरण को आदर्श मानकर पूरे देश में एक ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे हममें अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी बोध बना रहे और अपने अलावा दूसरों के लिए भी कुछ करने की प्रेरणा मिलती रहे। पूरी सृष्टि आदान-प्रदान के सिद्धांत पर संचालित है। अगर हम अपने परिवार, देश, समाज को कुछ देने की स्थिति में नहीं आएंगे, तो हम उनसे पाने की अपेक्षा भी ना ही करें। अंत में किसी संत की कुछ लाइनों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं-
ईश हमें देते हैं सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।
हवा-प्रकाश हमें मिलता है, मेघों से मिलता है पानी।
यदि बदले में कुछ नहीं देते, इसे कहेंगे बेईमानी।
इसीलिए दुख भोग रहे हैं, दुख को दूर भगाना सीखें।
असत् नहीं यह प्रभुमय दुनिया, और नहीं है यह दुखदाई।
दिल-दिमाग को सही दिशा दें, तो बन सकती है सुखदाई।

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