ब्रेकिंगराष्ट्रीय

नरेंद्र मोदी को वोट देने के लिए कर्नाटक के युवक ने आॅस्ट्रेलिया में छोड़ी नौकरी

मेंगलुरु : कर्नाटक के मेंगलुरु में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सभा को सम्बोधित किया उस समय उनके तमाम प्रशंसक उमड़ पड़े थे, लेकिन मोदी का एक फैन इन सबसे हटकर है। उसने मोदी को वोट देने के लिए ऑस्‍ट्रेलिया में अपनी नौकरी तक छोड़ दी। सुधींद्र हेब्‍बार नामक यह शख्‍स सिडनी एयरपोर्ट पर स्‍क्रीनिंग ऑफिसर के तौर पर काम कर रहा था। लेकिन जब उसने देखा कि उसे मतदान की तारीख पर छुट्टी नहीं मिल पाएगी तो उसने अपनी नौकरी से इस्‍तीफा दे दिया। सुरथकल के रहने वाले सुधींद्र ने बताया, ‘मुझे 5 अप्रैल से 12 अप्रैल तक की छुट्टी मिली थी। मैं इस छुट्टी को और नहीं बढ़ा सकता था क्‍योंकि आने वाले दिनों में ईस्‍टर और रमजान की वजह से एयरपोर्ट पर भारी भीड़ होने वाली थी। मैं किसी भी हालत में वोट करना चाहता था। इसलिए मैंने इस्‍तीफा देकर घर वापस लौटने का फैसला किया।’ चुनाव आते ही चारों तरफ नए-नए नारे छा जाते हैं। दरअसल चुनावी नारों का सिलसिला शुरुआत से ही चला आ रहा है। वेवर ने कहा था ‘नेता और उसके वादे प्रॉडक्ट की तरह हैं जिसे जनता के बीच लॉन्च किया जाता है।’ आइए जानते हैं हमारे देश में कौन-कौन से नारे ‘लॉन्च’ किए गए और जनता पर उनका क्या असर पड़ा।1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान मनोबल बढ़ाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का यह नारा, आगे कांग्रेस के चुनावी समर में भी खूब हिट हुआ। उस समय देश में खाद्य सामग्री की कमी हो गई थी। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने इसी नारे के आगे ‘जय विज्ञान’ जोड़ दिया। 70 के दशक में सोशलिस्टों का यह नारा चुनावी राजनीति में बड़ा बदलाव लेकर आया। पहली बार जातीय आधार पर वोटरों का बड़ा बंटवारा हुआ और एक नया ओबीसी वोटर वर्ग खड़ा हुआ। यह आवाज मंडल कमिशन और पिछड़ों के आरक्षण के अंजाम में तब्दील हुई। 1971 में इंदिरा गांधी के चुनावी अभियान को इस नारे ने ऐतिहासिक सफलता दिलाई और ‘इंदिरा इज इंडिया’ की जमीन तैयार की। इसके बाद राजीव गांधी ने भी इस नारे का प्रयोग किया। इमर्जेंसी के दौरान जयप्रकाश नारायण ने यह नारा दिया था जो आपातकाल के बाद विपक्ष ने पकड़ लिया। बड़ी विपक्षी पार्टियां जनता पार्टी के तहत आ गईं और 1977 के चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। 1989 में कांग्रेस का विजय रथ रोकने में सफल रहे विपक्ष की अगुवाई कर वीपी सिंह के लिए गढ़ा यह नारा खूब चर्चा में रहा। कांग्रेस ने भी जवाबी नारा गढ़ा ‘फकीर नहीं राजा है, सीआईए का बाजा है।’ 1993 के यूपी के विधानसभा चुनाव में राम लहर पर सवार बीजेपी को रोकने के लिए एसपी-बीएसपी ने गठबंधन किया। इसके साथ ही यह नारा भी अस्तित्व में आया। अंतत: बीजेपी का विजय रथ रुक ही गया। 1996 में लखनऊ की रैली में इस नारे का सबसे पहले उपयोग हुआ। इसके बाद वाजपेयी को केंद्र की सत्ता में काबिज होने का मौका मिला। हालांकि वह पहली बार केवल 13 दिन तक ही प्रधानमंत्री रह सके। इस नारे के साथ 2004 में कांग्रेस ने बीजेपी को हराकर केंद्र की सत्ता पा ली। एक बार फिर देश की सबसे पुरानी पार्टी ने आम आमदी को टारगेट करके वापसी कर ली। कांग्रेस ने देश के मिडल क्लास को ध्यान में रखा था। यह नारा 2010 के विधानसभा चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस ने दिया था। ममता बनर्जी की कविता की किताब पर इस स्लोगन का प्रयोग किया गया था और बाद में पार्टी की पत्रिका का भी यही नाम दिया गया। 2014 के आम चुनाव ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाते हुए चुनाव अभियान चलाया। मोदी की लोकप्रियता का रंग दिखा और बीजेपी ने बहुमत के साथ 10 साल बाद वापसी की। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का नारा भी इसी चुनाव अभियान में दिया गया। 2014 के चुनाव में कांग्रेस ने यह नारा दिया लेकिन यह असर नहीं दिखा सकता। कांग्रेस ने सोनिया गांधी की अगुवाई में राहुल गांधी को आगे रखते हुए यह नारा दिया था। लोकसभा चुनावों का ऐलान हो चुका है और ऐसे में फिर से कई नारे चर्चा में हैं। बीजेपी अपने इस नारे से नरेंद्र मोदी की दोबारा वापसी की कोशिश में जुटी है और सरकार के 5 साल के काम भी गिना रही है। सुधींद्र एमबीए कर चुके हैं। वह कहते हैं, ‘सिडनी में मैं दुनिया भर से आए लोगों के बीच काम करता हूं। इनमें यूरोपियन भी हैं और पाकिस्‍तानी भी। मुझे गर्व होता है जब वे कहते हैं कि भारत का भविष्‍य बहुत अच्‍छा है। मैं भारत की बदलती इमेज और इस कामयाबी का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को दूंगा। मैं सीमा पर जाकर अपने देश की रक्षा तो नहीं कर सकता लेकिन वोट डालकर एक वोटर के फर्ज को तो निभा सकता हूं।’ नौकरी के बारे में पूछने पर वह कहते है, ‘मैं ऑस्‍ट्रेलिया में परमानेंट रेजिडेंट कार्ड होल्‍डर हूं। मेरी पत्‍नी फिजी-ऑस्‍ट्रेलियन हैं। मैं पहले भी सिडनी में रेलवे के साथ काम कर चका हूं। इसलिए मुझे नहीं लगता कि दूसरी नौकरी खोजने में कोई दिक्‍कत आएगी। इस तरह सुधींद्र ने सोच लिया है कि वह 23 मई को चुनावी नतीजे आने तक भारत में रहेंगे। फिर इसके बाद वह दूसरी नौकरी की तलाश करने वापस ऑस्‍ट्रेलिया चले जाएंगे।

Related Articles

Back to top button