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बात बसों की ही तो है बस

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: करीब दो महीने के कर्णभेदी मौन के बाद राजनीतिक खिलाड़ी अपने चिरपरिचित खेल पर वापस लौट आए हैं। सरकारी आदेश के तहत 30 जून तक राजनीतिक गतिविधियों पर रोक है लेकिन वे ऐसे आदेश मान लें तो नेता काहे के? ऐसे संदेश ये खिलाड़ी दे रहे हैं कि हे प्रवासी मजदूर आप जहाॅ हो वहीं रहो, पहले हमें यह तय कर लेने दो कि आपकी मदद करने का सेहरा किसके सिर बंधेगा। यह तय होते ही हम आपका कल्याण करेंगे और आप जहाॅ भी हो, वहाॅ से आपको उठाकर अपने गंतव्य तक पहुॅचाएंगे।

लाॅकडाउन लागू होने के बाद कोई दो महीने से मजदूर अपने गाॅव वापस जाने के लिए तड़पते रहे हैं। कोई मीलों पैदल चल रहा है, कोई जानवरों की तरह वाहनों में लदकर जा रहे हैं और कई मौत का शिकार हो रहे हैं। प्रदेश के उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा को गाजियाबाद बॉर्डर पर मुख्यमंत्री ने भेजा था मजदूरों के लिए ट्रॉसपोर्ट का प्रबंध करने को लेकिन उनकी ज्यादा सफलता इस बात पर दिख रही है कि उन्होंने कांग्रेस को खूब खरी खोटी सुना दी है।

वे कह रहे हैं कि कांग्रेस ने मजदूरों को उनके गाॅव ले जाने के लिए जो बसें भेजीं, उनमें 460 फर्जी और अनफिट थीं। ऐसी बसें चलाकर श्रमिकों की जान से खिलवाड़ करने की कोशिश की जा रही थी जो सरकार नहीं होने देगी।

उन्होंने कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गाॅधी की इसके लिए कड़ी आलोचना की है। अब प्रियंका कह रही हैं कि हमारी बसों से चिढ़ है तो भाजपा अपने झण्डे उन पर लगा ले, बसें तो चलाए। मायावती भी कहाॅ पीछे रहने वाली थीं। भाजपा की सीधी आलोचना से आजकल परहेज करने वाली मायावती कांग्रेस पर बरस पड़ी हैं और उससे पूंछ रही हैं कि वह अपने शासित राज्यों में बसें क्यों नहीं चलाती।

अजीब तर्क है क्योंकि इससे ही कांग्रेस चले तो उसकी पूरी राजनीतिक दुनिया उन राज्यों तक सिमिट कर रह जाएगी जहाॅ उसकी अपनी राज्य सरकारें हैं। वैसे खुद राज्य सरकार ने तमाम बसों और दूसरे वाहनों के स्वामियों को अपने लाइसेंस और दूसरे प्रमाणपत्र नवीनीकृत करने के लिए तीन महीने तक की मोहलत दी हुई है। फिर उनकी वैधता का सवाल उठाने का कोई औचित्य नहीं था।

फिर यही बात थी और मजदूरों की प्रशासन को इतनी ही फिक्र थी तो इस बात की भी जाॅच तो होनी चाहिए थी कि औरैया में 81 मजदूरों को लादकर जिस वाहन पर मजदूरों को ले जाया जा रहा है, उसकी फिटनेस क्या परिवहन विभाग के स्थानीय अधिकारियों ने चैक की थी? जहाॅ—जहाॅ वाहन दुर्घटनाग्रस्त हुए और मजदूर मरे, उन वाहनों की फिटनेस क्या जांच की गई थी? और नहीं तो क्यों और हाॅ तो कितने अफसरों के खिलाफ कार्रवाई हुई, यह सरकार को बताना चाहिए था।

लेकिन असल बात यह है कि ये बसें तो बहाना है। दो महीने से जो हथियार जंग खा रहे थे, उन्हें नए सिरे से धार देनी थी। मोर्चे पर इन्हें लेकर फिर से वापस आना था। वैसे भी हमारे नेताओं को एक दूसरे से जूझे बिना, उलझे बिना कहाॅ मजा आता है। पूरा जोर इस बात पर होता है कि एक दूसरे को कैसे जनविरोधी बताया जाय, आम जनता के बीच किस तरह उनकी खिल्ली उड़ाई जाय।

अब अभी कांग्रेस और भाजपा दोनों के सामने कई समस्याएं हैं, जो उन्हें उलझनों में फॅसा देती हैं। कांग्रेस की दिक्कत यह है कि उसके पास जो भाई था, वह भाग खड़ा हुआ और ले देकर एक बहन बची है जिसको उत्तर प्रदेश जैसी ‘बंजर’ भूमि खेती के लिए सौंप दी गई है।

भाई यानी राहुल गाॅधी ने जो चुनरिया पार्टी के सामने धर दी थी, उसे अब फिर से ओढ़ने को तैयार नहीं हैं और बहन प्रियंका के पास सिवाय अपनी दादी वाली इमेज के कोई और धरोहर है नहीं। राहुल जब से अमेठी से हारे हैं, उन्होंने उत्तर प्रदेश से आमतौर पर मुॅह मोड़ रखा है। प्रियंका उनकी कमी को अमेठी से लेकर रायबरेली तक पूरा करती हैं। फिर कांग्रेस के पास दो और बड़ी समस्याएं हैं। सोनिया पूरी तरह से स्वस्थ्य नहीं रहतीं और मीडिया उनका साथ नहीं देता।

वास्तव में मीडिया के पास जब लिखने को कुछ नहीं होता है तो कांग्रेस पर तीर साध लेता है। उनके लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की पार्टी कार्यकर्ताओं के नाम यह अपील राजनीतिक विषय नहीं है कि कोविड यानी कोरोना पर प्रधानमंत्री की रीति-नीति को मुद्दा बनाकर चुनाव में प्रचार को निकलें। पर बार्डर पर लगाई गई बसें टूटी फूटी थीं, कांग्रेस का सिर फोड़ने के लिए इस आशय के बयान पर्याप्त उसके लिए प्र्याप्त थे।

भाजपा अच्छी तरह जानती है कि प्रदेश में उसके मुकाबले न तो कांग्रेस खड़ी होने लायक है और न ही सपा और बसपा। पर दिक्कत यह है कि सास न हो तो बहू और बहू न हो तो सास आखिर किससे लड़े सो उसके नेता प्रदेश के हर कोने से विरोधी दलों पर पर बम वर्षा करते रहते हैं। चुनाव अभी कोसों दूर है तो भी हमारे वीर योद्धा हमेशा युद्धोचित परिधान में सुसज्जित रहते हैं।

और अंत में, किसी ने भेजा है कि यह कहते हुए कि यह फैज का कलाम है-

”उबलते हुए आँसुओं के प्याले लेकर लौटे हैं,
निवाले कमाने गए थे, पर छाले लेकर लौटे हैं”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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