राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में प्रशासनिक मुद्दों के सम्बन्ध में उपराज्यपाल की सहमति अनिवार्य है। यहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री का दफ्तर होने के साथ-साथ कई प्रमुख संस्थाएं भी हैं। राष्ट्रीय विधायिका, राष्ट्रीय कार्यपालिका, सुप्रीम कोर्ट, सेना प्रमुख, अर्धसैनिक बलों के अलावा यहां कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं व कई देशों के दूतावास हैं।
नई दिल्ली : सर्वोच्च न्यायालय से केंद्र सरकार ने कहा कि दिल्ली का प्रशासन अकेले दिल्ली पर ही नहीं छोड़ा जा सकता है। केंद्र ने जोर देकर कहा कि देश की राजधानी होने के कारण इसकी स्थिति असाधारण है। जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण की पीठ से केंद्र ने कहा कि शीर्ष कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने बीते चार जुलाई को राष्ट्रीय राजधानी के शासन के लिए विस्तृत मानदंड तय किया था। 2014 में आम आदमी पार्टी (आप) के सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रीय राजधानी में केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच शक्ति संघर्ष चल रहा है। बुधवार को सुनवाई के दौरान केंद्र की ओर से पेश वकील ने कहा कि बुनियादी मुद्दों में से एक यह है कि क्या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (जीएनसीटीडी) की सरकार के पास विधायी और कार्यकारी शक्ति है। संविधान पीठ ने कहा था कि केंद्र शासित और एक राज्य को समान नहीं माना जा सकता। अनुच्छेद 239एए (दिल्ली की शक्ति और हैसियत संबंधी) एक स्वतंत्र तंत्र की तरह निकाला गया है। कोर्ट ने कहा है कि जीएनसीटीडी के पास तीन मुद्दों (कानून व्यवस्था, पुलिस और भूमि) के अतिरिक्त शक्तियां हैं। केंद्र के वकील ने पीठ से कहा कि देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली की असाधारण स्थिति है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में संसद, सुप्रीम कोर्ट और विदेशी राजदूतों के आवास सहित कई महत्वपूर्ण संस्थान हैं। गौरतलब है कि इसी साल 4 जुलाई को दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल को नसीहत देते हुए मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने दिल्ली को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 239एए की व्याख्या करते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने अभी सिर्फ दिल्ली की संवैधानिक स्थिति पर व्यवस्था दी है। दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ लंबित दिल्ली सरकार की अपीलों की मेरिट पर फैसला नहीं दिया है। दिल्ली सरकार की लंबित कुल छह अपीलों पर अभी नियमित पीठ में सुनवाई होगी और उन पर फैसला आना बाकी है।
बीते 4 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार के अधिकारों की व्याख्या करते हुए साफ कर दिया है कि उपराज्यपाल दिल्ली के मुखिया जरूर हैं, लेकिन उनके अधिकार सीमित हैं। लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को अहमियत देते हुए न्यायालय ने कहा है कि मंत्रिपरिषद को फैसले लेने का अधिकार है, उसमें दखल नहीं होना चाहिए। उपराज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करेंगे और मतांतर होने पर मामला राष्ट्रपति को भेज सकते हैं, लेकिन उन्हें स्वतंत्र रूप से फैसला लेने का अधिकार नहीं है। उपराज्यपाल को मंत्रिमंडल के हर फैसले की सूचना दी जाएगी, लेकिन उसमें उनकी सहमति जरूरी नहीं है। कोर्ट ने दिल्ली सरकार व उपराज्यपाल को संविधान का मंतव्य समझाते हुए मिल-जुलकर समन्वय से काम करने की नसीहत दी है। कोर्ट ने साफ कहा है कि संविधान में निरंकुशता व अराजकता का कोई स्थान नहीं है। जाहिर है कि इस अराजकता की अलग-अलग व्याख्या भी शुरू हो गई है।केंद्र व दिल्ली सरकार के बीच दिल्ली की हुकूमत को लेकर उठे विवाद पर 5 अगस्त 2016 को हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश जी रोहिणी व न्यायमूर्ति जयंत नाथ की खंडपीठ ने उपराज्यपाल को ही दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख करार दिया था। खंडपीठ ने कहा था कि ‘आप’ सरकार की यह दलील आधारहीन है कि उपराज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 239एए की धारा (3)( ए) के तहत इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। दिल्ली के उपराज्यपाल के पास अन्य राज्यों के राज्यपाल के मुकाबले व्यापक विवेकाधीन शक्तियां हैं। हाई कोर्ट ने उपराज्यपाल को प्रधानता देते हुए कहा था कि मंत्रिमंडल अगर कोई फैसला लेता है तो उसे उपराज्यपाल के पास भेजना ही होगा। अगर उपराज्यपाल का उस पर अलग दृष्टिकोण रहता है तो इस संदर्भ में केंद्र सरकार की राय की जरूरत पड़ेगी। उपराज्यपाल दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं और नीतिगत फैसले बिना उनसे संवाद किए स्थापित व जारी नहीं लिए जा सकते।
उपराज्यपाल प्रशासनिक प्रमुख क्यों
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के उपराज्यपाल प्रशासनिक प्रमुख क्यों है। इस पर उच्च न्यायालय ने स्पष्ट करते हुए कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 239, 239एए व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम 1991 पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है। अनुच्छेद 239 एए के तहत दिल्ली को कुछ विशेष प्रावधान प्राप्त हैं, लेकिन ये प्रावधान अनुच्छेद 239 के प्रभाव को भी कम नहीं कर सकते जो केंद्र शासित प्रदेश से संबंधित है।
क्या है मामला
23 सितंबर 2015 को अदालत ने सीएनजी फिटनेस घोटाले की जांच के लिए गठित न्यायिक आयोग को चुनौती देने, उपराज्यपाल द्वारा दानिक्स अधिकारियों को दिल्ली सरकार के आदेश न मानने, एसीबी के अधिकार को लेकर जारी केंद्र की अधिसूचना व डिस्कॉम में निदेशकों की नियुक्ति को चुनौती समेत अन्य मामलों में रोजाना सुनवाई करने का फैसला किया था। 24 जुलाई 2016 को अदालत ने दिल्ली सरकार की उस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था, जिसमें इन मामलों की सुनवाई पर रोक लगाने की मांग की गई थी। इस बीच दिल्ली सरकार इन मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने याचिका सुनने से इन्कार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट से जल्द से जल्द फैसला करने को कहा था।
अधिकारों को लेकर विवाद, कब-क्या हुआ
केंद्र एवं दिल्ली सरकार के बीच विवाद तब शुरू हुआ जब अरविंद केजरीवाल ने 2014 में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड, मुकेश अंबानी, यूपीए सरकार में तत्कालीन मंत्री एम वीरप्पा मोइली एवं मुरली देवड़ा पर गैस के रेट फिक्स करने का आरोप लगाते हुए केस दर्ज कराया।
2 मई 2014- रिलायंस इंडस्ट्रीज ने एफआईआर रद्द कराने के लिए हाईकोर्ट में दस्तक दी
8 मई 2014- केंद्र हाईकोर्ट गया, दलील दी गई कि एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) के पास न तो पावर है और न ही उसका कार्यक्षेत्र है कि मंत्रियों के खिलाफ जांच कर सके।
9 मई 2014- हाईकोर्ट ने एफआईआर रद्द करने के लिए दिल्ली सरकार को नोटिस दिया, लेकिन एसीबी से जांच जारी रखने को कहा गया।
20 मई 2014- हाईकोर्ट ने केंद्र से कहा कि रिलायंस इंडस्ट्री एसीबी की जांच में सहयोग करे।
9 अगस्त 2014- एसीबी ने हाईकोर्ट में कहा कि उनके पास गैस दाम केस में एफआईआर दर्ज करने की शक्ति है।
19 अगस्त 2014- एसीबी ने हाईकोर्ट में कहा कि वह इस केस में जांच नहीं कर सकती क्योंकि केंद्र की 23 जुलाई 2014 की अधिसूचना के मुताबिक केंद्र सरकार के कर्मचारियों के खिलाफ जांच करने की शक्ति उससे ले ली गई है।
16 अक्टूबर 2014- दिल्ली सरकार ने हाईकोर्ट में कहा कि एसीबी मामले की जांच कर सकती है।
28 अक्टूबर 2014- हाईकोर्ट ने केंद्र को समय दिया कि एसीबी की शक्ति पर स्थिति स्पष्ट की जाए।
4 दिसंबर 2014- रिलायंस इंडस्ट्रीज ने हाईकोर्ट में कहा कि राज्य सरकार केंद्र के निर्णय पर जांच करा रही है, जो सही नहीं है।
25 मई 2015- हाईकोर्ट ने कहा कि एसीबी पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार कर सकती है जो कि केंद्र के अधीन हैं तो एसीबी को शक्ति वाली केंद्र की अधिसूचना में कुछ संदेह है।
26 मई 2015- दिल्ली में अफसर तैनात करने की शक्ति एलजी को देने वाली अधिसूचना के खिलाफ हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर हुई।
28 मई 2015- एलजी को शक्ति देने के खिलाफ दिल्ली सरकार हाईकोर्ट में गई तो केंद्र सरकार ने हाईकोर्ट के 25 मई के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जिसमें केंद्र की अधिसूचना में संदेह जताया गया।
29 मई 2015- हाईकोर्ट ने एलजी से कहा कि दिल्ली सरकार के उस प्रस्ताव पर गौर किया जाए जिसमें नौ अधिकारियों का तबादला करने के लिए कहा गया है।
27 जनवरी 2016- केंद्र सरकार ने हाईकोर्ट में कहा कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है औैर केंद्र के अधीन है।
5 अप्रैल 2016- ‘आप’ सरकार ने हाईकोर्ट में कहा कि याचिका को उच्च बेंच के पास भेजा जाए।
4 जुलाई से 8 जुुलाई- सुप्रीम कोर्ट की अलग-अलग बेंच ने ‘आप’ सरकार की याचिका पर सुनवाई के मामले से खुद को अलग कर लिया।
4 अगस्त 2016- हाईकोर्ट ने कहा, एलजी ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं
15 फरवरी 2017- सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली और केंद्र के बीच का मसला संवैधानिक बेंच के पास भेजा
6 दिसंबर 2017- संवैधानिक बेंच के पास मसला आने के बाद कई दलीलें हुईं और बेंच ने फैसला सुरक्षित रख लिया
4 जुलाई 2018- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एलजी के पास स्वतंत्र रूप से कोई भी निर्णय लेने की शक्ति नहीं है। वह मंत्रियों के समूह विचार और प्रस्ताव पर काम करने के लिए बाध्य हैं।